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भारत में जाति जनगणना: आवश्यकता, आशंकाएं और आगे की राह


भारत में जाति जनगणना: आवश्यकता, आशंकाएं और आगे की राह 


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भारत, एक ऐसा देश जहाँ विविधता अपनी जड़ों से जुड़ी हुई है, यहाँ की सामाजिक संरचना में जाति एक महत्वपूर्ण और जटिल पहलू रहा है। ऐतिहासिक रूप से, जाति ने न केवल सामाजिक पहचान को आकार दिया है, बल्कि लोगों के अवसरों और जीवन की गुणवत्ता को भी गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। आज हम एक ऐसे विषय पर गहराई से चर्चा करने वाले हैं जिसने देश में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है – जाति जनगणना। यह सिर्फ एक सरकारी कवायद नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज के ताने-बाने, हमारी नीतियों और हमारे भविष्य को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। तो, आखिर यह जाति जनगणना क्या है, और क्यों यह आज इतना अधिक प्रासंगिक हो गया है? कुछ विचारक इसकी जगह ज्ञान और कौशल आधारित जनगणना का भी प्रस्ताव रखते हैं, जिसके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे।

इतिहास की पड़ताल:

जाति के आधार पर जनसंख्या की गिनती भारत में कोई नई बात नहीं है। वास्तव में, ब्रिटिश शासन के दौरान, 1872 से लेकर 1931 तक नियमित रूप से जाति जनगणना की जाती थी। इन जनगणनाओं का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश प्रशासन को भारत की जटिल सामाजिक संरचना को समझने और शासन करने में मदद करना था। इन आंकड़ों का उपयोग विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधित्व और नीतियों को तैयार करने के लिए किया जाता था। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता देते हुए जाति आधारित जनगणना को आगे नहीं बढ़ाने का निर्णय लिया। स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना 1951 में हुई, जिसमें सामाजिक-आर्थिक आंकड़े तो एकत्र किए गए, लेकिन जाति के आधार पर विस्तृत जानकारी शामिल नहीं की गई। तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी यह तर्क दिया था कि जाति आधारित जनगणना से सामाजिक ताना-बाना बिखर जाएगा, और इसे अस्वीकार कर दिया गया। वास्तव में जिन कारणों के आधार पर जाति आधारित जनगणना की मांग को उस समय खारिज किया था, वह आज भी कहीं न कहीं मौजूद हैं। इसके बाद, हर दस साल में होने वाली जनगणनाओं में केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की ही गणना होती रही है, जिन्हें संविधान में विशेष सुरक्षा और प्रतिनिधित्व दिया गया है। अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) और सामान्य वर्ग की जातियों के आंकड़े आधिकारिक तौर पर एकत्र नहीं किए गए। लेकिन समय के साथ, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव आया और अब एक बार फिर देश में व्यापक जाति जनगणना की मांग जोर पकड़ने लगी है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि यह विषय फिर से राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आ गया?

मांग के पीछे के तर्क:

जाति जनगणना की मांग करने वाले लोगों का मानना है कि इक्कीसवीं सदी के भारत में इसकी अत्यधिक आवश्यकता है। उनके अनुसार, इसके कई महत्वपूर्ण और दूरगामी फायदे हो सकते हैं जो हमारे समाज और राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक हैं। सबसे पहला और शायद सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह है कि जाति जनगणना से देश में विभिन्न जातियों की वास्तविक संख्या और उनकी वर्तमान सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सटीक आकलन हो सकेगा। वर्तमान में, अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) और सामान्य वर्ग की जातियों की जनसंख्या और उनकी स्थिति के बारे में हमारे पास जो भी आंकड़े हैं, वे या तो बहुत पुराने हैं, 1931 की जनगणना पर आधारित हैं, या फिर विभिन्न सर्वेक्षणों और अनुमानों पर निर्भर करते हैं, जिनकी सटीकता संदिग्ध हो सकती है। सटीक और अद्यतन जानकारी के अभाव में, सरकार के लिए यह अत्यंत कठिन हो जाता है कि वह वंचित और पिछड़े वर्गों की विशिष्ट आवश्यकताओं को समझ सके और उनके लिए प्रभावी और लक्षित नीतियां बना सके। असल में जाति भारतीय समाज का एक नासूर है, एक फोड़ा है जिसे दूर करने के लिए उसके कारणों को जानना होगा, और बिना विश्वसनीय आंकड़ों के यह संभव नहीं है। समर्थकों का यह भी कहना है कि जाति जनगणना से आरक्षण की नीतियों को और अधिक न्यायसंगत और प्रभावी बनाया जा सकेगा। भारत में, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण प्रदान किया जाता है ताकि उन्हें समान अवसर मिल सकें। यदि सरकार के पास प्रत्येक जाति की जनसंख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रगति का विश्वसनीय डेटा होगा, तो वह आरक्षण के दायरे, प्रतिशत और वितरण को बेहतर ढंग से निर्धारित कर पाएगी, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि वास्तव में जरूरतमंद समुदायों को ही इसका लाभ मिले और कोई भी वर्ग इससे वंचित न रहे। मंडल आयोग के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने जो आदेश दिया, उसमें पिछड़े वर्गों की गिनती का आदेश भी निहित था, क्योंकि सशक्त जातियों को पिछड़ों की सूची से बाहर करने के लिए पिछड़ों की वास्तविक संख्या पता लगाना जरूरी था। इसके अतिरिक्त, जाति जनगणना को सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा जाता है। जब देश में सभी जातियों की सही तस्वीर और उनकी सापेक्षिक स्थिति सामने आएगी, तो समाज में मौजूद गहरी असमानताओं को बेहतर ढंग से पहचाना जा सकेगा। यह सरकार और नागरिक समाज को इन असमानताओं के मूल कारणों को समझने और उन्हें दूर करने के लिए लक्षित और प्रभावी रणनीतियाँ बनाने में मदद करेगा। उदाहरण के लिए, यदि किसी विशेष जाति समूह में शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है, तो सरकार उस समुदाय के लिए विशेष कार्यक्रम और नीतियां बना सकती है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जाति जनगणना से सामाजिक सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलेगा। जब हाशिए पर रहने वाले समुदायों की संख्या और उनकी समस्याओं को आधिकारिक रूप से मान्यता मिलेगी, तो उन्हें अपनी आवाज उठाने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने में अधिक शक्ति मिलेगी। यह समावेशी विकास और एक अधिक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में सहायक होगा।

आशंकाएं और विरोध के स्वर:

जबकि जाति जनगणना के समर्थन में कई महत्वपूर्ण तर्क दिए जाते हैं, इसके विरोध में भी कुछ गंभीर चिंताएं और आपत्तियां व्यक्त की गई हैं, जिन पर विचार करना भी उतना ही आवश्यक है। विरोध करने वालों का सबसे बड़ा और प्रमुख डर यह है कि जाति जनगणना से समाज में पहले से मौजूद जातिगत विभाजन और अधिक गहरा और मजबूत हो सकता है। उनका मानना है कि इस कवायद से लोगों की पहचान उनकी जाति के आधार पर और भी अधिक दृढ़ हो जाएगी, जिससे सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता कमजोर हो सकती है। यही कारण था कि तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी इसे अस्वीकार किया था, क्योंकि उन्हें भी सामाजिक ताने-बाने के बिखरने का अंदेशा था। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जाति जनगणना से राजनीति में जाति का और अधिक खुलकर इस्तेमाल होने लगेगा। राजनीतिक दल वोटों को आकर्षित करने और ध्रुवीकरण करने के लिए जातिगत पहचानों का लाभ उठा सकते हैं, जिससे विकास, सुशासन और अन्य महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों से ध्यान भटक सकता है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जाति आधारित जनगणना 'जातिमुक्त' भारत के सपने में बाधक है। हालाँकि, इसके समर्थकों का कहना है कि 'जातिमुक्त' भारत का सपना अपने आप में एक निरर्थक सपना है, और भारत जैसे देश में इस तरह के सपनों का कोई भविष्य नहीं है। उनके अनुसार, जाति आधारित जनगणना और 'जातिमुक्त' भारत दो अलग-अलग विषय हैं जिन्हें भारत में एक साथ सुलझाया नहीं जा सकता है। पिछली जनगणनाओं में जाति को शामिल नहीं किया गया तो क्या देश से जातिवाद दूर हो गया? दरअसल सदियों से सत्ता की मलाई खा रहे लोग ही जाति आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें भय है कि जनगणना के बाद वास्तविक तस्वीर सामने आएगी और मलाई चाटने का अधिकार पिछड़े वर्गों को मिल जाएगा।

वर्तमान परिदृश्य और राजनीतिक घटनाक्रम:

भारत में जाति जनगणना का मुद्दा वर्तमान में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक विषय बना हुआ है। हाल के वर्षों में, विभिन्न राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने इस मांग को लगातार उठाया है। कई क्षेत्रीय राजनीतिक दल, जिनका मुख्य आधार जातिगत पहचान है, वे जाति जनगणना के प्रबल समर्थक हैं, क्योंकि उनका मानना है कि इससे उनके समुदाय की सही संख्या और स्थिति का पता चलेगा और उन्हें अधिक राजनीतिक शक्ति प्राप्त होगी। राष्ट्रीय स्तर पर भी, कई विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार से जाति जनगणना कराने की मांग की है। उनका तर्क है कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास के लिए आवश्यक है। (नवीनतम जानकारी के अनुसार - पिछली खोज परिणामों का संदर्भ लें) केंद्र सरकार ने आखिरकार इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए [देशव्यापी स्तर पर सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण कराने का निर्णय लिया है, जिसमें जाति से संबंधित जानकारी भी एकत्र की जाएगी]। हालांकि, इसे पारंपरिक जनगणना के रूप में नहीं बल्कि एक अलग सर्वेक्षण के तौर पर किया जाएगा। सरकार का तर्क है कि इस सर्वेक्षण का उद्देश्य विभिन्न समुदायों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को समझना है ताकि उनके लिए बेहतर नीतियां बनाई जा सकें। पिछड़ी जातियों की संख्या से संबंधित सही आंकड़ा आज भी उपलब्ध नहीं है। 1931 की जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने पिछड़ों की संख्या 52 फीसदी बताई है, जबकि राष्ट्रीय सर्वे के मुताबिक यह आंकड़ा 38 फीसदी है। मंडल आयोग के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने जो आदेश दिया, उसमें पिछड़े वर्गों की गिनती का आदेश भी निहित था। विभिन्न राज्य सरकारों ने भी इस मुद्दे पर अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाया है। कुछ राज्यों ने केंद्र सरकार के फैसले का स्वागत किया है, जबकि कुछ अन्य राज्यों ने पहले से ही अपने स्तर पर जाति आधारित सर्वेक्षण या जनगणना कराने की पहल की है। यह दिखाता है कि यह मुद्दा कितना जटिल और राजनीतिक रूप से संवेदनशील है। आने वाले समय में, जाति जनगणना या सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग किस प्रकार किया जाएगा, यह देखना महत्वपूर्ण होगा। इसका देश की राजनीति, सामाजिक नीतियों और विभिन्न समुदायों के भविष्य पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। इस मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति और आम राय बनाना भी एक बड़ी चुनौती होगी। जाति आधारित जनगणना का तात्कालिक लाभ चाहे किसी को भी हो, लेकिन इसके व्यापक प्रभाव होंगे, खासकर यदि हम जातिवाद को खत्म करना चाहते हैं, जिसके लिए सभी जातियों के विश्वसनीय आंकड़ें जुटाने होंगे।

ज्ञान और कौशल आधारित जनगणना का प्रस्ताव:

जाति जनगणना के साथ-साथ, एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव यह भी है कि क्या इसकी जगह ज्ञान और कौशल आधारित जनगणना करनी चाहिए। इस विचार के समर्थकों का मानना है कि इससे नीति निर्माण के लिए ज़्यादा बेहतर जानकारी मिल सकती है। ज्ञान और कौशल आधारित जनगणना लोगों की शिक्षा, कार्य अनुभव, पेशेवर कौशल और रोजगार के अवसरों पर केंद्रित होगी। इस तरह की जनगणना से श्रम बाजार की जरूरतों की बेहतर समझ हो सकती है, शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रमों को समाज की वास्तविक जरूरतों के अनुसार ढाला जा सकता है, और क्षेत्रीय विकास में असमानताओं को दूर करने के लिए योजनाएँ बनाई जा सकती हैं। हालांकि, यह भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि जाति आधारित आंकड़े सामाजिक असमानताओं को दूर करने के लिए जरूरी होते हैं। इसलिए, दोनों प्रकार की जनगणनाओं का संयोजन करके एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना सबसे उचित हो सकता है।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य:

यदि हम वैश्विक स्तर पर देखें, तो विभिन्न देशों में सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को समझने और दूर करने के लिए जनसंख्या संबंधी आंकड़े एकत्र किए जाते हैं। कुछ देशों में, नस्ल, जातीयता या धर्म जैसे कारकों के आधार पर भी डेटा एकत्र किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी समुदायों को समान अवसर मिलें और किसी के साथ भेदभाव न हो। हालांकि, भारत में जाति की ऐतिहासिक और सामाजिक जटिलता को देखते हुए, यहां जाति आधारित जनगणना का मुद्दा अन्य देशों में किए गए डेटा संग्रह से काफी अलग है। भारत में जाति न केवल एक सामाजिक वर्गीकरण है, बल्कि यह सदियों से चले आ रहे सामाजिक और आर्थिक विशेषाधिकारों और वंचितों से भी जुड़ी हुई है। इसलिए, भारतीय संदर्भ में जाति जनगणना के संभावित परिणामों और चुनौतियों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। जिस देश में शिक्षा, नौकरी और चुनाव में टिकट देने से लेकर पानी पिलाने से पहले जाति पूछी जाती है, वहां जाति आधारित जनगणना नहीं कराना विडंबना ही कहा जाएगा। जब जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गणना की जाती है, धर्म पूछा जाता है, तो पिछड़ी जातियों की जनगणना से परहेज क्यों? जाति आधारित जनगणना से देश टूटने की बात करना हास्यास्पद है, क्योंकि देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, इसके बावजूद जनगणना के दौरान धर्म पूछा जाता है।

निष्कर्ष:

जाति जनगणना निश्चित रूप से भारत में एक महत्वपूर्ण और बहस का विषय है। इसके समर्थक जहां इसे सामाजिक न्याय, समानता और बेहतर नीति निर्माण के लिए आवश्यक मानते हैं, वहीं इसके विरोधी सामाजिक विभाजन और राजनीतिक दुरुपयोग की आशंका जताते हैं। हालांकि, यह समझना होगा कि जातिवाद को समाज से खत्म किया जाना चाहिए, और यह संसाधनों के सही वितरण से ही संभव है, जिसके लिए जाति आधारित जनगणना एक महत्वपूर्ण रास्ता हो सकती है। चुनाव केवल जाति के आधार पर ही नहीं जीते जाते हैं, लेकिन जातिगत समीकरण चुनावों को प्रभावित करते हैं, और इस आधार पर पिछड़े वर्गों की गणना की वाजिब मांग को नकारना गलत है। केवल पिछड़ों वर्गों की ही क्यों, बल्कि समाज के सभी जातियों की गणना की जानी चाहिए, क्योंकि यह समाज में रहने वाले सभी लोगों के हित में है कि विकास योजनाओं का फायदा जरूरतमंदों तक पहुंचे। जाति आधारित जनगणना की राह में मुश्किलों की कमी नहीं है, लेकिन इसे अविलंब उठाया जाना चाहिए, इसी में सबका भला है। हमें जाति जनगणना और ज्ञान/कौशल आधारित जनगणना दोनों के फायदों और नुकसानों पर विचार करते हुए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है ताकि हम सामाजिक न्याय सुनिश्चित कर सकें और देश के विकास को भी गति दे सकें।

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